हम जब पैदल चल रहे होते हैं न, खासकर ट्रैफिक से भरी सड़कों पर, तो हमें आगे-पीछे बहुत सारी चीजों का ध्यान रख कर चलना होता है – आगे या पीछे से गाड़ी तो नहीं आ रही है, सिग्नल पर लाल बत्ती है या हरी बत्ती और अगर रास्ता संकड़ा हो तो लोगों का भी ध्यान रखना पड़ता है, साथ में बहुत सारी आवाज़ें – बस, टेम्पो, बाइक, कंस्ट्रक्शन की आवाज़, लोगों की आपस में, मोबाइल में, दुकानदारों से बातचीत की आवाज़, किसी टपरी पर से कुछ पुराने-नए गानों की आवाज़… आवाज़ नहीं, धुन… कुत्तों के भौंकने और यदा-कदा की खटर-पटर की आवाज़ तो आती ही रहती है। इतनी सारी आवाज़ तो आती ही है, आती है न?
क्या? आप सड़क पर ज्यादा नहीं चलते? अच्छा, दूर तक पैदल चल कर नहीं जाते। मुझे लगा अब तक तो आदत हो गयी होगी।
ख़ैर, मैं तो जाता रहता हूँ। आज भी गया था 4 किलोमीटर दूर, एक सिनेमाघर में, एक फिल्म देखने
Is Love Enough? – SIR
Do you see a star in this picture? क्या आपको इस तस्वीर में एक सितारा दिख रहा है?
फ़िल्म वैसी ही है जैसा आप चलते हुए महसूस करते हैं। पर कुछ सोचते हुए और मोबाइल पर बात करते हुए नहीं, इत्मीनान से, बिना किसी ख़याल के चलते हुए जैसा लगता है, वैसा।
ये कहानी पूरी तरह से तिलोतमा शोम (Tilotma Shome) के कंधों पर था – मेरे हिसाब से अनुभवी अदाकारा तो वो अपनी पहली फ़िल्म मॉनसून वेडिंग से ही लग रही हैं। तिलोतमा अपने किरदार रत्ना में इतनी डूबी थी उनके हाव-भाव, चलने का लहज़ा, बोलने का तरीका वातावरण के हिसाब से बिल्कुल सटीक रहा है – जैसे अपने मालिक या उनके परिवार या दोस्तों के सामने बहुत कम शब्द वो भी सकुचायी-सी आवाज़ में बोलना पर अपने परिवार, गार्ड या ड्राइवर से आराम से बेझिझक बात करना। साथ ही, चूँकि वो नौकरानी के किरदार में तो रत्ना के काम करने के तरीके को देखकर आप कभी एहसास नहीं करेंगे ये अभिनय कर रही हैं – ऐसा लगेगा कि वो रत्ना ही जो बचपन से ही ऐसी है – गरीब परिवार में जन्मी, ख़्वाब बड़े पर, जल्द ही समझ आ गया कि सपनों को मार देना ही अच्छा है और फिर दूसरों के सपने के लिए जीना और कोशिश करना शुरू कर देना। वैसे देश आधे से ज्यादा महिलाएं जो बस घर की चारदीवारी में ही रहती हैं का हाल भी कुछ ऐसा ही है।
तिलोतमा के लिए वैसे ये किरदार उतना नया नहीं है। इससे पहले वो अपनी पहली मॉनसून वेडिंग और कड़वी हवा में नौकरानी और गाँव की एक गरीब गृहिणी का रोल निभा चुकी है। पर यह फ़िल्म रत्ना के व्यक्तित्व पर पूरी तरह से केंद्रित है। और इसलिए फ़िल्म की ज्यादातर सिनेमैटोग्राफी (छायांकन) hand-held है ताकि दर्शक रत्ना के जीवन को महसूस कर सके, वहीं उसके साथ रहकर, बिना किसी धमाकेदार संगीत के, आस-पास के रोजमर्रा वाली आवाज़ों के बीच।
फ़िल्म में मालिक के किरदार में हैं विवेक गोम्बेर (Vivek Gomber) जो अच्छे रईस है और इन्हीं के साथ शुरू होती है अमीर (ऊंच) और गरीब (नीच) का भेद (class-division), जिसे बहुत ही खूबसूरती से बिना किसी लाग-लपेट के किरदारों के व्यवहार और कलाकारों के अभिनय के द्वारा दिखाया गया है। विवेक ने भी अपने किरदार की मानसिकता और अकेलेपन को बहुत परिपक्वता से जिया है।
हालांकि, कहानी में 1-2 सीन और जोड़े जा सकते थे जिसमें रत्ना को उसके ही तबके के लोगों के दबी आवाज़ में उपहास का सामना करना पड़ा होता। पर, तिलोतमा के मार्मिक अभिनय वो आसानी से छुप जाती है। वैसे तिलोतमा, मेरे हिसाब से, उन अभिनेत्रियों में हैं जो आँखों से ज्यादातर बातें कह देती है। ऐसे कलाकारों में Robert De Niro, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी, रणवीर सिंह (दुनिया loud बुलाती है पर…), Ryan Gosling, कोंकणा सेन शर्मा जैसे लोग आते हैं।
ख़ैर, उम्मीद है मेरी इतनी बातें सुनने के बाद आप सड़क पर पैदल चलने का, कुछ से कुछ ज्यादा और ज्यादा से बहुत दूर तक का रास्ता ज़रूर तय करेंगे। और अगर जा ही रहे हैं तो बगल के सिनेमाघर में इस फ़िल्म को देखने जरूर जाएं, इसलिए नहीं कि ये फ़िल्म छोटे-बजट की है, इसलिए कि ये अच्छी फ़िल्म है – बस फ़िल्म के दौरान ख़याली मंझे या घड़ी-घड़ी मोबाइल न देखें तभी आप इस कहानी का आनंद ले पाएँगे।
PS: तिलोतमा शोम के बारे में इतनी सारी बातें लिखने की दूसरी वजह ये भी है कि यह फ़िल्म मैंने सिर्फ़ उनकी वज़ह से ही देखी है।