कोई नाटिका जितनी सरल सी होती है उसकी सरलता को दिखाना उतना ही मुश्किल।
नमक
सरल ही तो है – एक छोटा सा मंच, 2-4 सामान, तीन थाली, तीन किरदार और तीन कहानियाँ – नहीं, नहीं, कहानी तो एक ही थी। वो तो तीन लोगों ने बताई अपनी-अपनी जगह, अपने-अपने हिसाब से, अपने-अपने ज़ज्बात से।
पर नमक कहाँ से आया? नमक ही तो थे ये तीनों। रोज काम आते हैं, पर घुल जाते हैं आसानी से इसलिए पता नहीं चलता!
तीनों की कहानी में न पीछे कोई कोलाहल नहीं, कोई धूम-धड़ाका नहीं, बस छोटी-छोटी क्रियाएं और थोड़े-थोड़े भाव (बस चुटकी भर नमक की तरह)। मैं तो निर्देशक बिल्कुल भी अक्लमंद नहीं है। अरे, कुछ आँधी-तूफान ले आता या मेटल ही बजवा देता तो कितना बढ़िया होता! फिर मैंने सोचा कि इस देश कितने सारे गरीब हैं! अब सबकी समस्याएँ (है तो केवल एक ही) पूरे देश में ढिंढोरा पीट कर सुनाया जाये तो ध्वनि-प्रदूषण तो काफी बढ़ जाएगा। इसलिए अच्छा ही किया। पर, किरदारों के आस-पास में जो अंधेरा वो थोड़ा कम रह गया और मुझे लगता है हमेशा कम ही रहेगा – भूख आने पर जो अंधेरा दिखता है वो तो ज्यादा बड़ा होता है न!
नमक परोसा गया है, सुनने में नमकीन लगेगा और मन से खायेंगे तो बहुत, बहुत नमकीन लगेगा, इतना कि आँखों से पानी आ जाये। पर स्वाद मीठा है, न बहुत ज्यादा, न बहुत कम। चखियेगा जरूर!
अंतराल – २५ मिनट ५५ सेकंड
कहानी – नमक तीन गरीब महिलाओं (एक माँ और उसकी दो बेटियों) की कहानी है जो कोरोना काल से भी पहले से चली आ रही उनकी दास्ताँ सुनाती हैं।
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