नाटक को देखने के बाद खाने पर बात करते हुए किसी ने कहा कि उसके स्कूल के दिनों में गणित में step-marking होती थी। मैंने तुरंत हस्तक्षेप किया और अपना विरोध जताया – “गणित में अगर उत्तर ग़लत आ जाए तो समझो आपने या तो फॉर्मूले में या फिर step में कहीं न कहीं गलतियाँ की है। step-marking वाला निरीक्षण काफी ग़लत है।”
कहानी में भी केवल एक किरदार के इर्द-गिर्द ताना-बाना बुनने का काम भी कुछ गणित के सवालों जैसा ही उलझा होता है। अगर एक पहलू भी ग़लत पड़ जाए तो कहानी बिखर जाती है। पर गिरीश करनाड़ जी का नाटक ‘बिखरे बिम्ब’ उस किरदार के सारे पहलू को बहुत खूबसूरती से सहेज लेता है, ठीक वैसे जैसे हम गणित के किसी कठिन सवाल का हल निकाल रहे होते हैं। मजे की बात यह कि किसी मनुष्य का दिमाग भी त्रिकोणमिति या बीज गणित की तरह ही उलझा होता है – कुछ वो झूठ बोलते हैं, कुछ वो जानबूझ कर ज़ाहिर नहीं करते और कुछ वो ख़ुद नहीं जानते – ठीक, मंजुला की तरह जोकि नाटक की इकलौती किरदार थी। हाँ, हाँ, इकलौता ही कहेंगे, अब ठीक से सोचने पर ‘दो किरदार जैसे’ नज़र आते हैं तो क्या हुआ?
अरुंधति नाग जी ने इस चरित्र को बहुत संजीदा तरीके से जीया है। उनकी चुलबुलाहट, कुलबुलाहट, आँखों की सख्ती और मासूमियत, अपने हाथों को चेहरे पर आने-जाने देने का समय, फिर उन्माद, अवसाद, ग्लानि, धूर्तता, खुशी और, क्या कहा था उन्होंने, अनुकंपा के चित्रण को महसूस करते-करते आपको एक वक्त ऐसा लगता है जैसे आपने उन सारे किरदारों से बात की है जिनके नाम मंजुला के ओठों पर बार-बार आ रहे थे। और फिर दूसरी मंजुला भी तो थी – चौंकाने वाली, चिढ़ाने वाली, मंद-मंद मुस्कान से कटाक्ष कसने वाली, सच्चाई की रूप रेखा साधने वाली – उससे, या यूँ कहें, स्वयं से सामंजस्य बिठाते हुए अरुंधति जी इतनी रम गई थी जैसे एक बच्ची अपने खेल में डूब-सी गई हो। वैसे दूसरी मंजुला के भाग को भी अरुंधति जी ने ही निभाया।
ये एकांकी आपको मंजुला के व्यक्तित्व से धीरे-धीरे अवगत कराता है जैसे आप एक प्याज को परत-दर-परत छिलते हुए देख रहे हों, हल्की झाँस आ रही होती है और आप तल्लीनता से देखते रहते हैं इसलिए भी क्योंकि हर एक परत में एक नया प्रतिबिंब दिखता है। और अंत में, मालिनी, जिसकी कहानी भी मंजुला एक तरह सुना रही होती है, का प्रतिबिंब जैसा उभर कर आता है वो भौचक्का-सा कर देता है।
यहाँ, इस नाटक के तकनीकी विभाग जैसे लाइट और, खासकर, led TV, projector aur कैमरे का प्रयोग अद्भुत तरीके से किया गया है।
इस नाटक का अंत गणित के सवाल से बिखर कर साहित्यिक हो जाता है जहाँ यह दर्शकों से दूर जाता है जैसे कह रहा हो कि ढूंढो हमें खुद बिंब बनकर।
अब इतना कुछ पढ़ने के बाद भी अगर आप इस एकांकी को नहीं देखना चाहते तो यह आपका ही नुकसान है।
Beautiful..
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